क्योंकि जो कुछ भी पहाड़ों में होता है, वह पहाड़ों में ही नहीं रहता, उसका असर नदियों के रास्ते मैदानों तक पसरता है जो अंततः समुद्र तक को अपने में आत्मसात कर लेता है और मानव सहित समूचे पृथ्वी तंत्र को प्रभावित करता है

दुनिया के जल चक्र में ग्लेशियरों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए और जलवायु परिवर्तन के कारण इन पर बढ़ते खतरे को ध्यान में रखते हुए, 21 मार्च 2025 को पहला विश्व हिमनदी दिवस मनाया गया। जिसे जानबूझ कर 22 मार्च को मनाये जाने वाले विश्व जल दिवस के एक दिन पहले ही रखा गया ताकि हिमनद और  वैश्विक जल चक्र के अंतर्संबंध और उनके तेजी से पिघलने से विकराल होती जल संकट और जुड़ी चुनौतियां पर वैश्विक समझ बन सके।

यूनेस्को द्वारा मौजूदा साल 2025 को हिमनद संरक्षण का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है, जो इस नाजुक परिस्थिति पर वैश्विक ध्यान आकर्षित करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। यह दिन ग्लेशियरों की सुरक्षा के लिए वैश्विक कार्रवाई को प्रोत्साहित करने और भावी पीढ़ियों के लिए पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को सुनिश्चित करने के लिए समर्पित है।

पृथ्वी पर मौजूद ताजे पानी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा 2,75,000 छोटे-बड़े हिमनदों में जमा है, जो लगभग 7,00,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है, इसीलिए इन्हें ‘ताजे पानी का जल मीनार’ भी कहा जाता है।

औसतन हर समय 170,000 घन किलोमीटर बर्फ पृथ्वी पर साफ पानी के बैंक के रूप में जमा रहता है।  ये विशाल बर्फ के भंडार न केवल पानी को जमा करते हैं, बल्कि धीरे-धीरे पिघलकर नदियों और झरनों में सालों भर पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं।

एंडीज पर्वत श्रृंखला, जो अमेज़ॅन नदी में प्रवाहित होने वाले आधे पानी की आपूर्ति करती है, ने 1980 के दशक से अपने 30 से 50 प्रतिशत हिमनद खो दिए हैं, और इस सदी के अंत तक 97 प्रतिशत तक बर्फ खो सकती है।

अफ्रीका के ग्लेशियर तो सबसे तेजी से पिघल रहे है, माउंट केन्या, रूवेन्ज़ोरी और किलिमंजारो के ग्लेशियर यदि कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो 2040 तक ही पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। पृथ्वी के जलवायु और भारतीय उपमहाद्वीप समेत चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के एक बड़े भू-भाग की नदी प्रणाली को सीधे प्रभावित करने वाली हिंदूकुश-काराकोरम-हिमालय प्रणाली के हिमनद, जिसे आमतौर पर ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाता है, वर्ष 2100 तक अपने ग्लेशियर की मात्रा का आधा हिस्सा खो देंगे।

विषुवतीय प्रदेश के हिमनदियों को कौन कहे, जलवायु परिवर्तन की धमक अपेक्षाकृत ठंढे यूरोप के आल्प्स तक पहुँच चुकी है और एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल में ही (2023-24) में  स्विट्जरलैंड के ग्लेशियर दस प्रतिशत तक सिकुड़ गए हैं। वैश्विक स्तर पर हिम नदियों के पिघलने में तेजी पिछली सदी के मध्य से ही होने लगी थी।

हालांकि विभिन्न समयों और अनेक ग्लेशियर में कभी-कभी अल्पकालिक हिमनद में फैलाव भी देखा गया, लेकिन पिछले दो दशक में बढ़ते वायुमंडलीय ग्रीनहाउस गैस के कारण ग्लेशियर के पिघले की गति तेजी से बढ़ी है। बढ़े वायुमंडलीय तापमान के कारण ग्लेशियर पर बर्फ जमा होने और उसके पिघलने के बार्षिक चक्र का संतुलन बिगड़ जा रहा है।

वैश्विक उष्मन के कारण ठंड के मौसम में ग्लेशियर पर बर्फबारी कम होती है और वर्षा अधिक होती है, जिससे ग्लेशियर पर बर्फ जमा होने की अवधि कम हो जाती है। वही दूसरी तरफ गर्मी के मौसम में बर्फ के पिघलने की गति और अवधि बढ़ जाती है जिसके नतीजे में ग्लेशियर धीरे-धीरे सिकुड़ने लगता है।

वैश्विक उष्मन के कारण ग्लेशियर में सलाना बर्फ जमने और और पिघलने के चक्र का संतुलन बिगड़ने लगता है, शुरू-शुरू में बर्फ के पिघलने की दर बढती जाती है और नतीजतन पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में भू-स्खलन, ऊँचाई वाले झीलों का फटना, व्यापक स्तर पर बाढ़ जैसी आपदा सामान्य होती जाती है।

इस क्रम में ग्लेशियर के पिघलने की दर अपने सबसे उच्चतम स्तर तक पहुँच जाता है, जिसे ‘पीक वाटर’ कहते है जो हर ग्लेशियर के प्रसार और बर्फ के जमने पिघलने के संतुलन से निर्धारित होता होता है। किसी ग्लेशियर में असंतुलन ऐसे ही जारी रहता है तो ‘पीक वाटर’ के बाद धीरे-धीरे निचले प्रदेशों के लिए पानी के कम होने लगते है जिसकी परिणति सूखे में होती है। हिमनदियों के पीक वाटर के पार करने की दर इतनी तेजी से बढ़ रही है कि इस सदी के मध्य आते-आते कम-से-कम 6200 ग्लेशियर सूख चुके होंगे।

ग्लेशियरों, बर्फ और हिमखंडों का पिघला हुआ पानी पीने के पानी, कृषि, उद्योग और पनबिजली के लिए आवश्यक है। यह दुनिया के अधिकाश नदियों और लगभग सभी बड़ी और विशाल नदी तंत्रों के मूल में है।

दुनिया भर में 2 अरब से अधिक लोग अपने ताज़े पानी की जरूरतों और आजीविका के लिए ग्लेशियरों और बर्फ के पिघलने पर निर्भर हैं। हिमनदों के पिघलने से न केवल स्थानीय समुदायों की आजीविका खतरे में पड़ती है, बल्कि वैश्विक स्तर पर खाद्य, जल और ऊर्जा सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है।

इसके परिणामस्वरूप समुद्र के स्तर में तेज़ी से वृद्धि हो रही है, जिससे विशेष रूप से छोटेद्वीपीय देशों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। पहले जो क्षेत्र ग्लेशियर के लिए जाने जाते थे अब बर्फ रहित उजाड़ क्षेत्र में तब्दील होते जा रहे हैं, जिसे ‘ग्लेशियरों का कब्रिस्तान’ कहा जा रहा है।

ये वैश्विक उष्मन और जलवायु परिवर्तन के भयावह संकेत हैऔर स्थितियां नहीं सुधरी तो यह सूखे भविष्य की स्याह चेतावनी भी है।आइसलैंड में वैश्विक जागरूकता फ़ैलाने के उद्देश्य से ‘ग्लेशियरों का कब्रिस्तान’ को मूर्त रूप दिया है।

वैश्विक तापमान बढ़ने का व्यापक असर ना सिर्फ ग्लेशियर पर पड़ा है बल्कि एक आर्कटिक क्षेत्र और तिब्बत के पत्थर के एक बड़े भूभाग में मौजूद परमाफ्रॉस्ट भी पिघलने की राह पर है। परमाफ्रॉस्ट धरती के उपरी परत के जमने की एक ऐसी स्थिति है जहाँ ज़मीन का तापमान लगातार दो या दो से अधिक वर्षों तक 0 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनी रहती है।

हिमनदों का पिघलना दुनिया भर में अरबों लोगों की आजीविका और अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करता है, एक अध्ययन के अनुसार लगभग 2 अरब से अधिक लोग अपने ताज़े पानी की जरूरतों, खाद्य सुरक्षा, आजीविका, सांस्कृतिक और घरेलू जरूरतों के लिए सीधे तौर पर ग्लेशियरों और बर्फ के पिघलने पर निर्भर हैं।

हिमनदों में चल रही गिरावट वैश्विक समुद्र-स्तर को बढ़ा रहे है, जिसकी जद में मानव बसावट का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। एक अनुमान के मुताबिक कम से कम 15 प्रतिशत मानव जनसँख्या समुद्र तट से कुछ किलोमीटर के अन्दर रहती है।

आज समुद्र का स्तर 1900 की तुलना में लगभग 20 सेमी अधिक है, जिससे ना सिर्फ ग्लेशियरों के पास और सुदूर मैदानी इलाकों के समुदाय बल्कि समूची तटीय आबादी के लिए ना सिर्फ जल संसाधनों के लिए खतरा पैदा हो रहा है, बल्कि ग्लेशियर और पानी से जुड़े चरम आपदाओं दो चार हो रहे हैं जिसमें असमय बाढ़,  भूस्खलन, पहाड़ी झीलों का फटना, सुनामी, तटीय क्षरण, भू-जल में बढ़ती लवण आदि प्रमुख है।

इन परिवर्तनों का व्यापक वैश्विक और स्थानीय आर्थिक प्रभाव हाल के वर्षो में बढ़ा है जो कृषि, जलविद्युत, पर्यटन, व्यापार, उर्जा उत्पादन, और परिवहन जैसे कई क्षेत्रों को प्रभावित किया है।

ग्लेशियर पृथ्वी के प्राकृतिक इतिहास के गवाह हैं, जिनमें अतीत के वायुमंडल, हवा के पैटर्न और अन्य जलवायु परिस्थितियों के बारे में आवश्यक जानकारी छिपी हुई है, ये सबसे महत्वपूर्ण और आसानी से उपलब्ध क्लाइमेट प्रॉक्सी है जिसके अध्ययन से पृथ्वी पर तेजी से बदल रहे जलवायु के बारे में आम समझ बन पाई है।

क्लाइमेट प्रॉक्सी हमें पृथ्वी के प्राचीन जलवायु और मौसम के बारे में जानकारी उपलब्ध कराती है, जैसे आज से कुछ हजार साल पहले वायुमंडल में गैसों की सांद्रता क्या थी? लगभग 130 वर्षों से, दुनिया भर के कुछ ग्लेशियरों की व्यवस्थित रूप से निगरानी की जा रही है और इससे मिलने वाले आंकड़े बदलते पर्यावरण संकट से बचाव, जलवायु अनुकूलन से जुड़ी रणनीतियों में मददगार साबित हो रही है।

ग्लेशियर न केवल पानी के स्रोत हैं, बल्कि पृथ्वी के जलवायु इतिहास के महत्वपूर्ण अभिलेखागार और विश्व भर में फैली विविध और अनूठी संस्कृतियों के अभिन्न अंग भी हैं। तभी तो विश्व की सबसे ऊँची छोटी स्थानीय तिब्बती और नेपाली समाज के लिए ना सिर्फ पवित्र है बल्कि ‘सागरमाथा’ भी है।

ग्लेशियर का बड़े पैमाने पर तेज़ी से पिघलना एक गंभीर वैश्विक चुनौती है जिसका सामना हमें तत्काल और सामूहिक रूप से करना होगा। वर्ष 2025, हिमनद संरक्षण का अंतर्राष्ट्रीय साल, और 21 मार्च 2025 को घोषित पहले हिमनदी दिवस इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत करने और भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन अमूल्य जल मीनारों के प्रति जागरूकता पैदा करने और उसके संरक्षण का अनूठा अवसर देती है। क्योंकि जो कुछ भी पहाड़ों में होता है, वह पहाड़ों में ही नहीं रहता, उसका असर नदियों के रास्ते मैदानों तक पसरता है जो अंततः समुद्र तक को अपने में आत्मसात कर लेता है और मानव सहित समूचे पृथ्वी तंत्र को प्रभावित करता है।

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